राजधानी से उपराजधानी पहुंचा भाषा विवाद

नागपुर में मनसे कार्यकर्ता गुस्से में
नागपुर.
नागपुर में यूनियन बैंक की फ्रेंड्स कॉलोनी शाखा के सामने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) कार्यकर्ताओं का विरोध प्रदर्शन और बैंक पर कालिख पोतने की घटना, भाषाई अस्मिता और उपभोक्ता अधिकारों के बीच बढ़ते टकराव को दर्शाती है। यह घटना केवल नागपुर तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे महाराष्ट्र में स्थानीय भाषा के सम्मान और केंद्रीय संस्थानों के रवैये से जुड़े एक बड़े मुद्दे को उठाती है।

बैंक का सफाई
मामला एक सड़क दुर्घटना में मृत युवक योगेश बोपचे के बीमा क्लेम से जुड़ा है। बैंक ने दावा किया कि चूँकि बीमा कंपनी का मुख्यालय कोलकाता में है, इसलिए मराठी एफआईआर के हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद की आवश्यकता थी। बैंक मैनेजर हर्षल जुननकर के अनुसार, कोलकाता के अधिकारियों को मराठी समझ में नहीं आती, और बीमा कंपनी केवल इन्हीं भाषाओं में दस्तावेज स्वीकार करती है। यह तर्क कुछ हद तक तकनीकी लग सकता है, लेकिन इसने मराठी भाषी उपभोक्ताओं के बीच गहरी नाराजगी पैदा की है, खासकर तब जब बैंक ने स्पष्ट किया कि अन्य मामलों में मराठी एफआईआर स्वीकार की जाती है।

बैंक पर कालिख पोत दिया
मनसे का आंदोलन, जिसमें लगभग 50 कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया, महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों की भाषा और अस्मिता की राजनीति का एक क्लासिक उदाहरण है। बैंक पर कालिख पोतना भले ही एक उग्र तरीका हो, लेकिन यह उस गुस्से को दर्शाता है, जो लोगों में तब पनपता है जब उन्हें लगता है कि उनकी अपनी भाषा का सम्मान नहीं किया जा रहा है या उन्हें बेवजह परेशान किया जा रहा है।

माफी के बाद भी सवाल
हालांकि बैंक ने बाद में माफी मांग ली और मनसे ने आंदोलन वापस ले लिया, यह घटना कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करती है। क्या केंद्रीयकृत बीमा कंपनियों को देश के विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं में दस्तावेजों को स्वीकार करने के लिए अपने सिस्टम को अपडेट नहीं करना चाहिए? क्या यह उपभोक्ताओं पर अनावश्यक बोझ नहीं है कि उन्हें अपनी एफआईआर का अनुवाद करवाकर नोटराइज कराना पड़े? महाराष्ट्र में पहले भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं जब बैंक, रेलवे या अन्य केंद्रीय संस्थानों में मराठी भाषा के उपयोग को लेकर विवाद खड़ा हुआ है। यह घटना सरकार और संबंधित संस्थानों के लिए एक चेतावनी है कि उन्हें स्थानीय भाषाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भाषाई बाधाएं नागरिकों को उनके हक से वंचित न करें।

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