कैदी की आत्महत्या के बाद गर्माया मुद्दा
नागपुर.
नागपुर सेंट्रल जेल में हत्या के दोषी तुलसीराम लाकाडू शेंडे (54) द्वारा अंडरवियर के इलास्टिक बैंड से फाँसी लगाकर आत्महत्या करने की घटना ने जेल प्रशासन की सुरक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह कोई इक्का-दुक्का मामला नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र की जेलों में कैदियों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामले एक चिंताजनक प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं।
फिर जेल में निगरानी का क्या मतलब
तुलसीराम को 30 जून 2024 को ही हत्या के एक मामले में दोषी ठहराया गया था और तब से वह नागपुर जेल में बंद था। यह घटना धंतोली पुलिस को बुधवार को मिली सूचना के बाद सामने आई, जिसके बाद जांच शुरू कर दी गई है। हालांकि पुलिस ने इसे आकस्मिक मृत्यु का मामला दर्ज किया है, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि एक कैदी, जो चौबीसों घंटे निगरानी में होता है, आखिर कैसे इस तरह के कदम उठा पाता है।
पहले भी हो चुकी हैं वारदातें
यह घटना इसलिए भी अधिक गंभीर हो जाती है क्योंकि नागपुर सेंट्रल जेल में ऐसी वारदातें पहले भी हो चुकी हैं। दो साल पहले सीजो चंद्रन नामक कैदी ने भी आत्महत्या का प्रयास किया था। इसके अलावा, अप्रैल 2025 में ठाणे की तलोजा जेल में विशाल गवली और अक्टूबर 2024 में ठाणे जेल में दीपक गुप्ता नामक कैदियों की आत्महत्याओं ने भी जेलों के भीतर कैदियों की सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति पर बड़े सवाल खड़े किए थे।
जेलें सुधार गृह होनी चाहिए
ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि भारतीय जेलें, विशेषकर महाराष्ट्र की जेलें, कैदियों की शारीरिक सुरक्षा के साथ-साथ उनके मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल में भी विफल हो रही हैं। क्या जेलों में पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं हैं जो कैदियों के व्यवहार पर नज़र रख सकें? क्या कैदियों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता और परामर्श उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है? जेलें सुधार गृह होनी चाहिए, न कि ऐसी जगहें जहाँ कैदी हताशा में अपनी जान ले लें। इस घटना की गहन जांच होनी चाहिए और जेल प्रशासन को अपनी नीतियों और प्रक्रियाओं की समीक्षा करनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियों को रोका जा सके। कैदियों के मानवाधिकारों और उनके मानसिक कल्याण को प्राथमिकता देना समय की मांग है।
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