दत्तात्रेय होसबोले बोले- मंदिर के लिए आंदोलन में शामिल हो सकते हैं स्वयंसेवक
नई दिल्ली.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने स्पष्ट किया है कि अगर संगठन के सदस्य मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी विवाद से संबंधित प्रयासों में भाग लेते हैं, तो संगठन को कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन उन्होंने सभी मस्जिदों को निशाना बनाने के प्रयासों के खिलाफ चेतावनी दी और सामाजिक कलह से बचने की आवश्यकता पर बल दिया।
भागवत के उलट विचार आए सामने
होसबोले ने कन्नड़ में आरएसएस के मुखपत्र विक्रम से बातचीत में कहा, “उस समय (1984) विश्व हिंदू परिषद और साधु-संतों ने तीन मंदिरों की बात की थी। अगर हमारे स्वयंसेवकों का एक वर्ग इन तीन मंदिरों (अयोध्या में राम जन्मभूमि सहित) के मामले में एकजुट होना चाहता है, तो हम उन्हें नहीं रोकेंगे।” देखा जाये तो होसबोले का यह बयान संघ प्रमुख मोहन भागवत के पूर्व में दिये गये बयान से बिल्कुल उलट है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कहा था कि मथुरा और काशी आरएसएस के एजेंडे में नहीं है और अब मंदिर के लिए कोई आंदोलन नहीं होगा। उन्होंने बाद में कई बार यह भी कहा था कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढ़ना सही नहीं है।
गोहत्या, लव जिहाद और धर्मांतरण पर चिंता
दत्तात्रेय होसबोले ने गोहत्या, लव जिहाद और धर्मांतरण से जुड़ी मौजूदा चिंताओं को स्वीकार करते हुए अस्पृश्यता को खत्म करने, युवाओं के बीच संस्कृति के संरक्षण और स्वदेशी भाषाओं की सुरक्षा जैसे समकालीन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया। वहीं भाषा नीति पर होसबोले ने त्रिभाषी दृष्टिकोण का समर्थन किया और इसे 95% भाषाई विवादों का समाधान बताया। उन्होंने भारतीय भाषाओं को संरक्षित करने और उनमें शिक्षित लोगों के लिए आर्थिक अवसर सुनिश्चित करने के महत्व पर जोर दिया और कहा कि कई लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा सीखने में भी कोई बुराई नहीं है।
शतकीय वर्ष का उल्लेख
उन्होंने कहा कि संघ इस वर्ष अपने कार्य के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है, ऐसे समय में ‘‘उत्सुकता है कि संघ इस अवसर को किस रूप में देखता है। स्थापना के समय से ही संघ के लिए यह बात स्पष्ट रही है कि ऐसे अवसर उत्सव के लिए नहीं होते, बल्कि ये हमें आत्मचिंतन करने तथा अपने उद्देश्य के प्रति पुनः समर्पित होने का अवसर प्रदान करते हैं। संघ के सौ वर्षों की इस यात्रा के अवलोकन और विश्व शांति व समृद्धि के साथ सामंजस्यपूर्ण और एकजुट भारत के भविष्य का संकल्प लेने के लिए संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जयंती से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता, जो वर्ष प्रतिपदा यानि हिंदू कैलेंडर का पहला दिन है।
संघ की स्वीकार्यता बढ़ रही है
उन्होंने कहा कि समाज में संघ की स्वीकार्यता और अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं, यह सब हेडगेवार की दृष्टि व कार्यपद्धति की स्वीकार्यता का संकेत है। जब हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई, दुर्भाग्यवश उसी समय भारत माता का मजहब के आधार पर विभाजन हो गया। ऐसी कठिन परिस्थिति में संघ के स्वयंसेवकों ने नए बने पाकिस्तान में बंटवारे का दंश झेल रहे हिंदुओं को बचाने और उन्हें सम्मान और गरिमा के साथ पुनर्स्थापित करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। डॉ. हेडगेवार ने किसी वैचारिक सिद्धांत का प्रतिपादन करने के बजाय बीज रूप में एक कार्ययोजना दी, जो इस यात्रा में मार्गदर्शक शक्ति रही है।इस आंदोलन और दर्शन का नित्य नूतन विकास किसी चमत्कार से कम नहीं है। हिंदुत्व और राष्ट्र के विचार को समझाना आसान कार्य नहीं था, क्योंकि उस काल के अधिकांश अंग्रेजी शिक्षित बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा से प्रभावित थे।
भारत को तैयार रहना होगा
होसबोले ने कहा कि आजकल हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति है, ऐसी स्थिति में भी संघ समाज के सांस्कृतिक जागरण और सम्यक सोच वाले लोगों और संगठनों की एक मजबूत संरचना विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। भारत एक प्राचीन सभ्यता है, जिसे अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं के आधार पर मानवता के हित में अहम भूमिका निभानी है। यदि भारत को एकात्म एवं सार्वभौमिक सद्भावना पर आधारित यह महती भूमिका निभानी है, तो भारतीयों को इस लक्ष्य के लिए स्वयं को तैयार करना होगा।